रविवार, 28 फ़रवरी 2010
काबुल में आतंकी हमला
काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
टाटा-बिड़ला-अंबानी के सपने हुए साकार
टाटा-बिड़ला-अंबानी के सपने हुए साकार
नई दिल्ली, एजेंसी : बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश करना अनिल धीरू भाई अंबानी समूह (एडीएजी) का सपना रहा है। इसकी चर्चा कई बार समूह के अध्यक्ष अनिल अंबानी कर चुके हैं। यही इच्छा टाटा और बिड़ला समूह की भी रही है। इनके सपनों को प्रणब मुखर्जी ने साकार कर दिया। निजी क्षेत्र को और बैंकिंग लाइसेंस देने की घोषणा पर उद्योग जगत ने सुखद आश्चर्य जताया है। आदित्य बिड़ला समूह के अध्यक्ष कुमार मंगलम बिड़ला ने कहा कि यह घोषणा सुखद आश्चर्य की तरह है। हम निश्चित तौर पर एक बैंक खोलना चाहते हैं। आदित्य बिड़ला फाइनेंशियल सर्विसेज ग्रुप के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अजय श्रीनिवासन ने कहा कि हमें भरोसा है कि हम उन योग्यता मानदंडों पर खरे उतरेंगे जो तय किया जाएगा। अनिल अंबानी समूह की वित्तीय सेवा शाखा रिलायंस कैपिटल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सैम घोष ने कहा कि यह कदम भविष्य में रिलायंस कैपिटल के वृद्धि के नए आयाम खोलता है। हम इस संबंध में ब्योरे और दिशा निर्देश का इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम इस घोषणा का स्वागत करते हैं कि आरबीआई नई निजी कंपनियों और एनबीएफसी को बैंकिंग लाइसेंस देने पर विचार कर रहा है। यह सकारात्मक पहल है। इससे अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढांचे और अन्य उत्पादक क्षेत्रों के लिए संसाधन जुटाने की प्रक्रिया में तेजी आएगी। इन दोनों समूहों के अलावा टाटा समूह की शाखा टाटा कैपिटल, मालविंदर सिंह के नेतृत्व वाले रेलिगेयर समूह और मुथूट समूह बैंकिंग लाइसेंस पर निगाह रखे हुए है। देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी और प्रबंध निदेशक चंदा कोचर ने कहा कि बैंकिंग एक जटिल कारोबार है। यह देखना होगा कि आरबीआई अतिरिक्त लाइसेंस देने के लिए क्या प्रक्रिया तय करता है। रेलिगेयर इंटरप्राइजेज के मुख्य अर्थशास्त्री जयशंकर ने कहा कि काफी समय से एनबीएफसी बैंकिंग लाइसेंस की मांग कर रही थी। यह सकारात्मक पहल है। इससे बैकिंग क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा।
नई दिल्ली, एजेंसी : बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश करना अनिल धीरू भाई अंबानी समूह (एडीएजी) का सपना रहा है। इसकी चर्चा कई बार समूह के अध्यक्ष अनिल अंबानी कर चुके हैं। यही इच्छा टाटा और बिड़ला समूह की भी रही है। इनके सपनों को प्रणब मुखर्जी ने साकार कर दिया। निजी क्षेत्र को और बैंकिंग लाइसेंस देने की घोषणा पर उद्योग जगत ने सुखद आश्चर्य जताया है। आदित्य बिड़ला समूह के अध्यक्ष कुमार मंगलम बिड़ला ने कहा कि यह घोषणा सुखद आश्चर्य की तरह है। हम निश्चित तौर पर एक बैंक खोलना चाहते हैं। आदित्य बिड़ला फाइनेंशियल सर्विसेज ग्रुप के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अजय श्रीनिवासन ने कहा कि हमें भरोसा है कि हम उन योग्यता मानदंडों पर खरे उतरेंगे जो तय किया जाएगा। अनिल अंबानी समूह की वित्तीय सेवा शाखा रिलायंस कैपिटल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सैम घोष ने कहा कि यह कदम भविष्य में रिलायंस कैपिटल के वृद्धि के नए आयाम खोलता है। हम इस संबंध में ब्योरे और दिशा निर्देश का इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम इस घोषणा का स्वागत करते हैं कि आरबीआई नई निजी कंपनियों और एनबीएफसी को बैंकिंग लाइसेंस देने पर विचार कर रहा है। यह सकारात्मक पहल है। इससे अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढांचे और अन्य उत्पादक क्षेत्रों के लिए संसाधन जुटाने की प्रक्रिया में तेजी आएगी। इन दोनों समूहों के अलावा टाटा समूह की शाखा टाटा कैपिटल, मालविंदर सिंह के नेतृत्व वाले रेलिगेयर समूह और मुथूट समूह बैंकिंग लाइसेंस पर निगाह रखे हुए है। देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी और प्रबंध निदेशक चंदा कोचर ने कहा कि बैंकिंग एक जटिल कारोबार है। यह देखना होगा कि आरबीआई अतिरिक्त लाइसेंस देने के लिए क्या प्रक्रिया तय करता है। रेलिगेयर इंटरप्राइजेज के मुख्य अर्थशास्त्री जयशंकर ने कहा कि काफी समय से एनबीएफसी बैंकिंग लाइसेंस की मांग कर रही थी। यह सकारात्मक पहल है। इससे बैकिंग क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा।
दीदी ने छुड़ाया दादा ने फिर लगाया सेवाकर
दीदी ने छुड़ाया दादा ने फिर लगाया सेवाकर
नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो : जुलाई में आया पिछला बजट याद है आपको.. दादा ने किस तरह रेल माल ढुलाई पर सेवाकर लगाया था जो बाद में ममता दीदी की आरजू मिन्नत पर हट गया था। दादा ने इस बजट में फिर माल भाड़े पर (जरुरी सामान की ढुलाई को अलग करते हुए) सेवाकर लगा दिया है। सिर्फ यही नहीं बजट ने आईपीएल के आयोजकों के हिसाब किताब का खेल बिगाड़ने का इंतजाम भी है। इस बजट से यह भी तय है कि अचल संपत्ति को किराया देना करयोग्य सेवा है यानी घर लीजिए या दीजिए, सेवाकर जरूर दीजिए। इस बजट में भी वित्त मंत्री का मास्टर स्ट्रोक सेवाकर ही है। सेवाकर से मौजूदा साल में 68,000 करोड़ रुपए का राजस्व मिला है। कर के दायरे में आई सेवाएं तो वित्त मंत्री की मुश्किलें बाद में हल करेंगी, अभी सेवाकर के दायरे में विस्तार से ही काफी काम हो जाएगा। प्रणब बाबू ने एक बार फिर रेलवे से माल ढुलाई पर सेवाकर लगा दिया है। यह पिछले साल के बजट में भी लगा था, लेकिन बाद में रेल मंत्रालय के विरोध पर इसे वापस ले लिया गया। बस ममता दीदी यहीं चूक गई। उन्हें लगा कि इसकी वापसी नहीं होगी। नए वित्त विधेयक के जरिये रेलवे से माल ढुलाई पर सेवाकर वापस हो गया। पिछली बार की तुलना में फर्क सिर्फ इतना है कि अनाज केरोसिन व दूध आदि की ढुलाई सेवाकर से मुक्त रहेगी। वक्त बताएगा कि यह कर रहेगा या वापस होगा, लेकिन संकेत हैं कि इस बार दादा अपनी पर अड़ सकते हैं और देश का सबसे बड़ा ट्रांसपोर्टर वित्त मंत्रालय का बड़ा करदाता हो सकता है। अचल संपत्ति किराये पर सेवाकर की कहानी बड़ी दिलचस्प है। किराये की परिभाषा और सेवाकर नियमों के तहत इसकी स्थिति आदि को लेकर राजस्व विभाग हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक झगड़े में उलझा रहा, लेकिन अंतत: वित्त मंत्रालय ने मास्टर स्ट्रोक चल दिया। वित्त विधेयक में शामिल प्रावधानों के तहत अचल संपत्ति किराये टैक्सेबल सर्विस मान लिया गया है वह भी पिछली तारीख से। वित्त मंत्री ने जिन आठ नई सेवाओं पर सेवाकर लगाया है उसमें खेल, मनोरंजन, कला और व्यापार आदि के वह आयेाजन भी हैं जिनके वाणिज्यिक अधिकार या प्रायोजन अधिकार बेचे जाते हैं। यह सीधे तौर पर आईपीएल की कमाई से एक हिस्सा सरकारी खजाने में पहुंचाएगा। सिर्फ यही सेवाकर का दायरा बढ़ाने के दांव बड़े जोरदार हैं। अब हर तरह की सॉफ्टवेयर सेवाओं पर सेवाकर लगेगा।
नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो : जुलाई में आया पिछला बजट याद है आपको.. दादा ने किस तरह रेल माल ढुलाई पर सेवाकर लगाया था जो बाद में ममता दीदी की आरजू मिन्नत पर हट गया था। दादा ने इस बजट में फिर माल भाड़े पर (जरुरी सामान की ढुलाई को अलग करते हुए) सेवाकर लगा दिया है। सिर्फ यही नहीं बजट ने आईपीएल के आयोजकों के हिसाब किताब का खेल बिगाड़ने का इंतजाम भी है। इस बजट से यह भी तय है कि अचल संपत्ति को किराया देना करयोग्य सेवा है यानी घर लीजिए या दीजिए, सेवाकर जरूर दीजिए। इस बजट में भी वित्त मंत्री का मास्टर स्ट्रोक सेवाकर ही है। सेवाकर से मौजूदा साल में 68,000 करोड़ रुपए का राजस्व मिला है। कर के दायरे में आई सेवाएं तो वित्त मंत्री की मुश्किलें बाद में हल करेंगी, अभी सेवाकर के दायरे में विस्तार से ही काफी काम हो जाएगा। प्रणब बाबू ने एक बार फिर रेलवे से माल ढुलाई पर सेवाकर लगा दिया है। यह पिछले साल के बजट में भी लगा था, लेकिन बाद में रेल मंत्रालय के विरोध पर इसे वापस ले लिया गया। बस ममता दीदी यहीं चूक गई। उन्हें लगा कि इसकी वापसी नहीं होगी। नए वित्त विधेयक के जरिये रेलवे से माल ढुलाई पर सेवाकर वापस हो गया। पिछली बार की तुलना में फर्क सिर्फ इतना है कि अनाज केरोसिन व दूध आदि की ढुलाई सेवाकर से मुक्त रहेगी। वक्त बताएगा कि यह कर रहेगा या वापस होगा, लेकिन संकेत हैं कि इस बार दादा अपनी पर अड़ सकते हैं और देश का सबसे बड़ा ट्रांसपोर्टर वित्त मंत्रालय का बड़ा करदाता हो सकता है। अचल संपत्ति किराये पर सेवाकर की कहानी बड़ी दिलचस्प है। किराये की परिभाषा और सेवाकर नियमों के तहत इसकी स्थिति आदि को लेकर राजस्व विभाग हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक झगड़े में उलझा रहा, लेकिन अंतत: वित्त मंत्रालय ने मास्टर स्ट्रोक चल दिया। वित्त विधेयक में शामिल प्रावधानों के तहत अचल संपत्ति किराये टैक्सेबल सर्विस मान लिया गया है वह भी पिछली तारीख से। वित्त मंत्री ने जिन आठ नई सेवाओं पर सेवाकर लगाया है उसमें खेल, मनोरंजन, कला और व्यापार आदि के वह आयेाजन भी हैं जिनके वाणिज्यिक अधिकार या प्रायोजन अधिकार बेचे जाते हैं। यह सीधे तौर पर आईपीएल की कमाई से एक हिस्सा सरकारी खजाने में पहुंचाएगा। सिर्फ यही सेवाकर का दायरा बढ़ाने के दांव बड़े जोरदार हैं। अब हर तरह की सॉफ्टवेयर सेवाओं पर सेवाकर लगेगा।
शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010
श्री गुरु ग्रंथ साहिब में फाग
फाल्गुन महीने की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को होली अथवा होलिकोत्सव मनाया जाता है। फाल्गुन मास के अंतिम दिन में मनाए जाने के कारण भारत के कुछ भागों में इसे फाग या फागुली भी कहा जाता है। होलिका दहन की इसी तारीख को अधिकांश प्रांतों में सामूहिक अग्नि जलाई जाती है और अगले दिन 'धुलेंडी' पर रंगों की होली खेली जाती है।सिख पंथ के पाँचवें गुरु श्री गुरु अरजन देवजी ने 'होली' के पर्याय के रूप में प्रचलित 'फाग' शब्द का भी प्रयोग करके, प्रकारांतर से भक्त प्रह्लाद की प्रभु-भक्ति को ही ध्यान में रखकर 'होली' का सही स्वरूप संतों की सेवा तथा गुरु भक्ति में रंगे रहने को माना है, श्री गुरुग्रंथ में लिखा है-आजु हमारै बने फाग ! प्रभ संगी मिली खेलन लाग ॥होली कीनी संत सेव ! रंगु लागा अति लाल देव ॥2॥मनु तनु मउलिओ अति अनूप ! सूकै नाही छाव धूप ॥सगली रूती हरिआ होई ! सद बसंत गुर मिले देव ॥3॥(श्री गुरु ग्रंथ साहिब का पन्ना 1180)
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