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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

काबुल में आतंकी हमला

काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब
श्र्ल्जव् ज्प्न्श्र्े इज् ग्ज्क्ष् काबुल में ताजा आतंकी हमला भले ही किसी भारतीय ठिकाने पर न हुआ हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि निशाना भारत ही था। इस हमले का उद्देश्य मुख्यत: भारतीयों को हताहत करना था। इसी तरह इसे लेकर भी संदेह की कोई गुंजाइश नहीं कि इस हमले के पीछे उन तत्वों का हाथ है जिनकी पीठ पर पाकिस्तान ने हाथ रखा हुआ है। भले ही भारत ने इस हमले को लेकर क्षोभ और आक्रोश जताने में कोई संकोच न किया हो, लेकिन यह तय है कि इससे न तो पाकिस्तान की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही अफगानिस्तान में सक्रिय उन तत्वों पर जो यह नहीं चाहते कि भारत इस देश के पुनर्निर्माण में योगदान दे। इसके भी आसार कम ही हैं कि इस हमले में पाकिस्तान की भूमिका उजागर होने के बाद अमेरिका उसके खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई करेगा। हालांकि भारतीय प्रधानमंत्री यह कह रहे हैं कि पाकिस्तान से बातचीत करते रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं है, लेकिन यथार्थ यह है कि इस बातचीत से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। एक तो पाकिस्तान वार्ता के जरिये समस्याओं के समाधान का इच्छुक नहीं और दूसरे वह चाह कर भी हालात ठीक करने में सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि वहां वही होता है जो उसकी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई चाहती है। पाकिस्तान तीन हिस्सों में विभाजित हो चुका है। एक हिस्से के रूप में वहां की कथित चुनी हुई सरकार है और दूसरे में सेना एवं आईएसआई। पाकिस्तान का तीसरा हिस्सा वहां फल-फूल रहे आतंकी गुट हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं जिन पर पाकिस्तान की सरकार का कोई जोर नहीं और कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हिमायत सेना एवं आईएसआई कर रही है। आखिर इन स्थितियों में पाकिस्तान सरकार से बात क्यों की जानी चाहिए? क्या सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए? यह सही है कि दो देशों की आपसी समस्याओं का समाधान बातचीत से ही निकलता है, लेकिन पाकिस्तान सरकार तो इस स्थिति में ही नहीं कि अपने फैसलों पर अमल करा सके। नि:संदेह विश्व के प्रमुख राष्ट्र यह समझ रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार बेहद कमजोर और ढुलमुल है, लेकिन फिर भी वे यह रट लगाए रहते हैं कि भारत को उससे बात करनी चाहिए। ऐसा करके वे स्वयं के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं और भारत के लिए भी। आखिर यह एक तथ्य है कि अमेरिका तालिबान आतंकियों से समझौते का इच्छुक है। उसकी यह इच्छा इस बात का सबूत है कि वह पाकिस्तान और साथ ही अफगानिस्तान सरकार के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं। दुनिया को दिखाने के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला कायम रखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यदि भारतीय नेतृत्व यह समझ रहा है कि ऐसी बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच सकेगी तो यह एक दिवास्वप्न ही है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बिगड़ रहे हैं उसे देखते हुए भारत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रह सकता। उसे इस पर विचार करना ही होगा कि बिखराव की कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान का सामना कैसे किया जाए? यदि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत अपनी नीति नहीं ब

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