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बुधवार, 3 मार्च 2010

फिल्म : क्लिक

फिल्म : क्लिक कलाकार : श्रेयस तलपडे , चंकी पांडे , स्नेहा उल्लाल , सदा निर्माता : प्रीतिश नंदी कम्यूनिकेशन निर्देशक : संगीत सिवान संगीत : शमीर टंडन सेंसर सर्टिफिकेट : ए ( केवल वयस्कों के लिए ) अवधि : 131 मिनट। हमारी रेटिंग :
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कभी भूत - प्रेत और भटकती आत्माओं या जादू टोने पर बनने वाली फिल्मों को सी क्लास सेंटरों की फिल्मों की कैटिगरी में रखा जाता था। दरअसल , 70, 80 के दशक में रामसे ब्रदर्स बैनर की फिल्मों के बीच जानी दुश्मन जैसी ऐसी फिल्में आई जिनकी कहानी इन्हीं तक सिमटी रही। राम गोपाल वर्मा ने जब हॉरर फिल्में बनाई तो डरावने और वीभत्स चेहरे स्क्रीन पर नहीं थे बल्कि उनकी जगह साउंड और लेटेस्ट तकनीक ने ली और इन फिल्मों के दर्शक हर छोटे बड़े शहर में मिलने शुरू हुए। इस फिल्म की कहानी भी भटकती आत्मा और उसके इंतकाम से जुड़ी है , लेकिन कैमरे और लेटेस्ट तकनीक के बेहतर इस्तेमाल ने इस कहानी को सी क्लास हॉरर फिल्मों से अलग श्रेणी में लाकर रख दिया है। कहानी : फिल्म शुरू होती है फैशन फोटो शूट से। मॉडल सोनिया ( सदा ) अपने प्रेमी बॉयफेंड अवि ( श्रेयस तलपडे ) के घर में एक मैगजीन के लिए फोटो शूट में बिजी हैं। स्कूल ऑफ आर्ट से डिप्लोमा लेने के बाद अवि ने फैशन फोटोग्राफर का करियर चुना और अब जानामाना कैमरामैन है। एक अंधेरी रात में शूट के बाद सदा और अवि कार से किसी सुनसान जगह से गुजरते हैं। सोनिया कार ड्राइव कर रही है , अचानक कार से एक महिला टकराती है और कार एक बोर्ड से टकराकर रुक जाती है। सोनिया पीछे देखती है सड़क पर महिला बेहोश हालत में पड़ी है , सोनिया उसे अस्पताल ले जाना चाहती है लेकिन अवि पुलिस के पचड़े से बचना चाहता है और सोनिया को वापस चलने को कहता है। सड़क पर घायल महिला को छोड़ दोनों वहां से चले जाते है। यहीं से इनकी खुशहाल जिंदगी बदहाल हो जाती है। हर रात कोई छुपा साया सोनिया का पीछा करता है तो अवि द्वारा खींची गई हर फोटो में भी एक अनजान साया दिखाई देता है। इस बीच अवि के तीन खास दोस्तों की हत्या हो जाती है। खौफ और हर पल मौत के साये में जिंदगी गुजर रही सोनिया इस साये की सचाई तक जाने का फैसला करती है इसके बाद ऐसा सच सामने आता है जो सोनिया को अवि का एक और चेहरा दिखाता है। ऐक्टिंग : श्रेयस तलपड़े कैमरामैन के रोल में फिट है , श्रेयस ने अपने रोल को असरदार करने के लिए अच्छी खासी मेहनत की है। श्रेयस के सिवा फिल्म में बाकी सबने तो बस अपना रोल निभा भर दिया है। स्नेहा उल्लाल को अच्छा रोल तो मिला , लेकिन रोल में जान डालने में कामयाब नहीं रही। वहीं सदा भी जब स्क्रीन पर आई बस डरा डरा मुरझाया चेहरा ही दिखाती नजर आई। संगीत : ऐसी फिल्मों में गाने रुकावट बनकर रह जाते है। कुछ यही हाल इस फिल्म में भी है गाने अच्छे और कर्णप्रिय है , लेकिन स्क्रिप्ट में उनके लिए गुंजाइश नहीं थी , सो चम चम चांद सा चेहरा , यादें याद आती है , मेरी जान जाती है जैसे अच्छे गाने भी असर नहीं छोड़ पाते। निर्देशन : कैमरामैन से डायरेक्टर बने संगीत की कैमरे पर गजब पकड़ है , इसके बावजूद फोटोग्राफी साधारण है और आधी से ज्यादा फिल्म को ना जाने क्यों ब्लू या डॉर्क में शूट किया गया है। इंटरवल से पहले दर्शकों को डराने के लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया लेकिन दर्शक डरने की बजाय हंसते नजर b: अगर आप भूत - प्रेत और इंतकाम के लिए भटकती आत्माओं में यकीन रखते है। तो अपने यकीन को पदेर् पर देखने की चाह में एकबार जा सकते है।

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